कबायली आक्रमण से लेकर पहलगाम हमले तक, जानिए 78 सालों में कश्मीर को मिले कितने जख्म

कबायली आक्रमण से लेकर पहलगाम हमले तक, जानिए 78 सालों में कश्मीर को मिले कितने जख्म

एक ऐसी कहानी में, जो सदियों पुरानी है, लेकिन इसके जख्म आज भी ताजा हैं। ये कहानी है जम्मू-कश्मीर की, उस धरती की, जिसे कभी 'जमीन का जन्नत' कहा जाता था, लेकिन पिछले 78 सालों से ये जन्नत बारूद की गंध और खून की नदियों से सनी हुई है। हाल ही में पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने एक बार फिर इस जन्नत को जहन्नम की आग में झोंक दिया है। तो आइए, इतिहास के उन पन्नों को पलटते हैं, जहां से इस त्रासदी की शुरुआत हुई थी, और समझते हैं कि आखिर कश्मीर की इस जंग की असल जड़। करीब 700 साल पहले, जब शम्सुद्दीन शाह मीर ने कश्मीर की धरती को सींचा, तब से लेकर तमाम नवाबों और राजाओं ने इसे एक गुलिस्तान बनाया। चिनार के पेड़ों की छांव में, गुलदार की खुशबू वाली हवाओं में, कश्मीर की फिजाओं में सिर्फ अमन और मोहब्बत की बातें होती थीं। इसे 'जमीन का जन्नत' कहा जाने लगा। लेकिन ये जन्नत ज्यादा दिन तक हंसी-खुशी नहीं रह सकी।

एक राजा की नादानी और एक हुक्मरान की मनमानी ने इस गुलिस्तान को जहन्नम की आग में झोंक दिया। साल था 1947। हिंदुस्तान आजादी की दहलीज पर खड़ा था, लेकिन उसी वक्त एक मुल्क के दो टुकड़े हो गए 'भारत और पाकिस्तान'। 'मेरा मुल्क, तेरा मुल्क... मेरा मजहब, तेरा मजहब... मेरी जमीन, तेरी जमीन', इसी गैर-इंसानी जिद ने लाखों लोगों को मजहब के नाम पर कत्ल कर दिया। और इसी जिद ने कश्मीर की जन्नत को जहन्नम में तब्दील करने की नींव रखी। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह की एक ही ख्वाहिश थी 'अपनी रियासत को हिंदू-मुस्लिम की सियासत से दूर रखना, एक आजाद कश्मीर बनाना'। लेकिन पाकिस्तान बनाने वाले कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्नाह को ये बिल्कुल मंजूर नहीं था। उनकी दलील थी, "जिस तरह जूनागढ़ को हिंदू आबादी के आधार पर भारत में मिलाया गया, वैसे ही कश्मीर की मुस्लिम आबादी के आधार पर उसे पाकिस्तान में शामिल होना चाहिए।"

अपनी इस जिद को मनवाने के लिए जिन्नाह ने हरि सिंह पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। कश्मीर को जरूरी सामानों की सप्लाई रोक दी गई। लेकिन हरि सिंह अपने फैसले पर अडिग थे। और वो फैसला था 'आजाद कश्मीर'! आजादी के महज 9 हफ्ते बाद, 22 अक्टूबर 1947 को, जिन्नाह के इशारे पर हजारों कबायली लड़ाके कश्मीर में घुस आए। उनके हाथों में बंदूकें, मशीन गनें और मोर्टार थे। उन्हें 'मुजाहिदीन' का नाम दिया गया, लेकिन उनके कारनामे आतंकियों से कम न थे। उन्होंने लूटपाट, हत्या, बलात्कार और तबाही मचाई। मुजफ्फराबाद और डोमेल जैसे शहरों पर कब्जा कर लिया गया। वो श्रीनगर के करीब उरी तक पहुंच गए। घाटी खून से लाल हो गई। मुस्लिम सैनिकों को भड़काकर विद्रोह करवाया गया। जो मुसलमान उनके साथ आए, वो महफूज रहे, और जो खिलाफ गए, उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। कश्मीर की फिजाओं में अब चिनार की खुशबू नहीं, बल्कि बारूद का धुआं तैरने लगा।

महाराजा हरि सिंह के सामने अब तीन रास्ते थे-

-पाकिस्तान को कश्मीर सौंप देना।  

-खुद लड़ाई लड़ना, जो नामुमकिन था।  

-भारत से मदद मांगना।

लेकिन भारत के सामने एक पेच था- कश्मीर तब तक भारत का हिस्सा नहीं था, इसलिए भारत सैन्य कार्रवाई नहीं कर सकता था। आखिरकार, हरि सिंह ने भारत के साथ विलय का फैसला लिया। रातों-रात भारतीय सेना और हथियार श्रीनगर पहुंचाए गए। कबायली उस वक्त श्रीनगर से सिर्फ एक मील दूर थे। भारतीय सेना ने पहले श्रीनगर को सुरक्षित किया, फिर जंग का रुख मोड़ दिया। नक्शों और सप्लाई की कमी के बावजूद, भारतीय जवानों ने अदम्य साहस दिखाया। बारामुला, उरी और आसपास के इलाके वापस छीन लिए गए। कबायलियों में भगदड़ मच गई। एक-एक इंच जमीन के लिए खून बहा। आखिरकार, भारत ने दो-तिहाई कश्मीर पर कब्जा कर लिया।  ये जंग यहीं नहीं रुकी। मामला संयुक्त राष्ट्र तक पहुंचा। 5 जनवरी 1949 को सीजफायर हुआ और लाइन ऑफ कंट्रोल (LoC) बनाई गई। पाकिस्तान के कब्जे में जो हिस्सा गया, उसे आज हम Pakistan Occupied Kashmir (PoK) कहते हैं, जिसमें गिलगित, मीरपुर, मुजफ्फराबाद और बाल्टिस्तान शामिल हैं। लेकिन कश्मीर की जंग यहीं खत्म नहीं हुई। अगली स्टोरी में हम आपको ताएंगे की  कश्मीर की जंग का सिलसिला कब तक चला! जंग में कितना नुकसान हुआ! 

(Edited by :- Nitin Vishwakarma)

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